मंगलवार, 1 सितंबर 2015

बेपरवाह

हाँ और ना के दो पाटों के बीच पिसा जाना गवारा नहीं है मुझे
पर अपनी इच्छाओं के अलावा अपने कर्तव्यों का भी भान होना ही चाहिए मुझे
इन्हीं द्वंद्वों के बीच मैं हो गया हूँ अकेला
बिल्कुल अकेला,खुद से भी दूर
धूप,हवा और चाँदनी के जद से भी बाहर
जहाँ रह-रहकर एक आशा रूपी तारे की टिमटिमाहट जगा देती है मुझे
और मैं वापस आ जाता हूँ फिर से भूत और भविष्य के ठीक बीचोबीच
और भागने लगता हूँ बिना रुके,बिना सोचे बेपरवाह

बुधवार, 24 जून 2015

और मैं था बदल गया।

फिर आज मैंने देखा उसे
उसी पुराने राह पर
वही,बिल्कुल वही
जैसे खिलाफ हो बदलाव के
ठिठक गया वो यह सोचकर
कि इस मोड़ फिर कैसे मिले
हम ठहरना चाहते थे
पर समय भी ठहरा कहाँ है
कदम था ठहरा हुआ पर
सड़क जैसे चल पड़ा
मैनें जब मुड़कर देखा उसे
वह था अनमना सा चल रहा
मैं मुड़ पड़ा,
पीछा किया
कुछ दूर उसके पदचाप का
पर रुकना पड़ा मुझे हार कर
उसी पुराने द्वार पर
क्योंकि वह खिलाफ था बदलाव के
और मैं था बदल गया।

29/05/2015

मंगलवार, 2 जून 2015

मेरा अंत

बरखा बहार लाई सावन की आड़ में।
माँझी मुझे छोड़ गया बीच मंझधार में।

दिखे है न साहिल और डूब गई कश्ती।
जाऊँ कहाँ मैं अब खोजूँ कहाँ बस्ती?

रब जाने मंजिल अब मेरा कहाँ है?
हमराह मेरे अब बस वो खुदा है।

दूर हुआ था जब मैं अपने शहर से।
चेहरा पुताया था जब दुनिया के डर से।

जिंदगी के दोराहे पे खड़ा था बेचारा।
राह जो पकड़ा मैंने वो था अँधियारा।

अनजान राहें थी और चला बेसहारा।
जीवन के दौड़ में हूँ अब मैं तो हारा।

ठौर पराया था यह छूटना था एक दिन।
कच्चे थे धागे इन्हें टूटना था एक दिन।

शुक्रवार, 22 मई 2015

मैं

ये जो खुद को शहरों की गलियारों मे पाता हूँ मैं।
बेहतर भविष्य की कामना में भागता जाता हूँ मैं।
है प्रतिद्वंद्वी युग की खामियाँ कुछ दिल का बहकावा है।
युवाओं के इस देश में युवा हीं बेचारा है।
पर हम युवा है यारों युवा भी कहीं कभी हारा है?

बुधवार, 6 मई 2015

मेरी तरह

पपीते का सूखा जवान पेड़
मेरी आशाओं की तरह तेरे द्वार पर खड़ा है चुपचाप
पर उगने के तीन सालों बाद भी वह छोटा ही है
क्या तुमने सोचा है कभी क्यों हो गये है उसके पत्ते पीले
क्योंकि एक साल और कुछ महीनों से नहीं मिली है उसे पानी और धूप
आसमान में बादल तो रोज आते है मगर कभी बरसते नहीं और न हीं उसे मिल पाती है धूप
ओस की बूँदो और चाँदनी के सहारे जी रहा है वह
हर रोज यही सोचकर जागता है सुबह
आज शायद मिलेगा उसे पानी और धूप
जिससे उसके सूखे पत्ते हो सके फिर से हरा-भरा जो युवावस्था में ही हो गये है पीले।

बुधवार, 29 अप्रैल 2015

रामू

रामू नाम था उसका
मजदुरी करता था वह
या शायद बेगारी
बिहार-नेपाल के शायद हर गाँव मेँ काम कर चुका था वह
ऐसा उसकी बातों से लगता था
हमारे घर भी  काम किया था उसने 
पर वह टिक न सका
आखिर क्यों?
पैसे तो चाहिए थे नहीँ उसको
भोजन?
नहीँ खाने की तो उसे पूरी आजादी थी
फिर क्या चाहिए था उसे?
शायद प्यार भरे दो बोल जिसकी खोज मेँ वह आज भी भटक रहा है|

गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

वीआईपी संस्कृति

समान है सब फिर यह अतिविशिष्टता क्यों
लोकतंत्र में हो रही यह धृष्टता क्यों
अभिशाप है ऐसा यह जिसे खुद को हमने दिया है
प्राणघातक जाम में चुपचाप अबतक हमने जिया है
अपने सेवक का जो हमने आजतक सेवा किया है
वज्र बनकर हम गिरेंगे इस विकास-बाधक शूल पर
अब जो हुए है खड़े हम अभिशाप यह हरकर रहेंगे
समान है सब समानता का हक अपना लेकर रहेंगे।
#QuitVIPCulture