रामू नाम था उसका
मजदुरी करता था वह
या शायद बेगारी
बिहार-नेपाल के शायद हर गाँव मेँ काम कर चुका था वह
ऐसा उसकी बातों से लगता था
हमारे घर भी काम किया था उसने
पर वह टिक न सका
आखिर क्यों?
पैसे तो चाहिए थे नहीँ उसको
भोजन?
नहीँ खाने की तो उसे पूरी आजादी थी
फिर क्या चाहिए था उसे?
शायद प्यार भरे दो बोल जिसकी खोज मेँ वह आज भी भटक रहा है|
लोगों से जब कह न सका तो मजबूरन कलम उठाना पड़ा,दर्द जब दिल ये सह न सका तो हमदर्द कागजों को बनाना पड़ा।
बुधवार, 29 अप्रैल 2015
रामू
गुरुवार, 9 अप्रैल 2015
वीआईपी संस्कृति
समान है सब फिर यह अतिविशिष्टता क्यों
लोकतंत्र में हो रही यह धृष्टता क्यों
अभिशाप है ऐसा यह जिसे खुद को हमने दिया है
प्राणघातक जाम में चुपचाप अबतक हमने जिया है
अपने सेवक का जो हमने आजतक सेवा किया है
वज्र बनकर हम गिरेंगे इस विकास-बाधक शूल पर
अब जो हुए है खड़े हम अभिशाप यह हरकर रहेंगे
समान है सब समानता का हक अपना लेकर रहेंगे।
#QuitVIPCulture
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