बुधवार, 29 अप्रैल 2015

रामू

रामू नाम था उसका
मजदुरी करता था वह
या शायद बेगारी
बिहार-नेपाल के शायद हर गाँव मेँ काम कर चुका था वह
ऐसा उसकी बातों से लगता था
हमारे घर भी  काम किया था उसने 
पर वह टिक न सका
आखिर क्यों?
पैसे तो चाहिए थे नहीँ उसको
भोजन?
नहीँ खाने की तो उसे पूरी आजादी थी
फिर क्या चाहिए था उसे?
शायद प्यार भरे दो बोल जिसकी खोज मेँ वह आज भी भटक रहा है|

गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

वीआईपी संस्कृति

समान है सब फिर यह अतिविशिष्टता क्यों
लोकतंत्र में हो रही यह धृष्टता क्यों
अभिशाप है ऐसा यह जिसे खुद को हमने दिया है
प्राणघातक जाम में चुपचाप अबतक हमने जिया है
अपने सेवक का जो हमने आजतक सेवा किया है
वज्र बनकर हम गिरेंगे इस विकास-बाधक शूल पर
अब जो हुए है खड़े हम अभिशाप यह हरकर रहेंगे
समान है सब समानता का हक अपना लेकर रहेंगे।
#QuitVIPCulture