है नहीं यह अभिव्यक्ति और न संवाद है
राजनिति से आम जीवन तक यह क्यों व्याप्त है
क्या वजह है कि हम बड़बोले होते जा रहे
वैश्विक तरक्की के दौर मे सृजनात्मकता खोते जा रहे
यह झुँझलाहट है शायद वैचारिकता के ह्रास की
या यह द्योतक है हमारे मौलिकता के नाश की
हम युवा क्यों हो गये गुमराह से
आयेंगे कैसे आखिर हम अब सही राह पे