मंगलवार, 1 सितंबर 2015

बेपरवाह

हाँ और ना के दो पाटों के बीच पिसा जाना गवारा नहीं है मुझे
पर अपनी इच्छाओं के अलावा अपने कर्तव्यों का भी भान होना ही चाहिए मुझे
इन्हीं द्वंद्वों के बीच मैं हो गया हूँ अकेला
बिल्कुल अकेला,खुद से भी दूर
धूप,हवा और चाँदनी के जद से भी बाहर
जहाँ रह-रहकर एक आशा रूपी तारे की टिमटिमाहट जगा देती है मुझे
और मैं वापस आ जाता हूँ फिर से भूत और भविष्य के ठीक बीचोबीच
और भागने लगता हूँ बिना रुके,बिना सोचे बेपरवाह