ये जो खुद को शहरों की गलियारों मे पाता हूँ मैं।
बेहतर भविष्य की कामना में भागता जाता हूँ मैं।
है प्रतिद्वंद्वी युग की खामियाँ कुछ दिल का बहकावा है।
युवाओं के इस देश में युवा हीं बेचारा है।
पर हम युवा है यारों युवा भी कहीं कभी हारा है?
लोगों से जब कह न सका तो मजबूरन कलम उठाना पड़ा,दर्द जब दिल ये सह न सका तो हमदर्द कागजों को बनाना पड़ा।
शुक्रवार, 22 मई 2015
मैं
बुधवार, 6 मई 2015
मेरी तरह
पपीते का सूखा जवान पेड़
मेरी आशाओं की तरह तेरे द्वार पर खड़ा है चुपचाप
पर उगने के तीन सालों बाद भी वह छोटा ही है
क्या तुमने सोचा है कभी क्यों हो गये है उसके पत्ते पीले
क्योंकि एक साल और कुछ महीनों से नहीं मिली है उसे पानी और धूप
आसमान में बादल तो रोज आते है मगर कभी बरसते नहीं और न हीं उसे मिल पाती है धूप
ओस की बूँदो और चाँदनी के सहारे जी रहा है वह
हर रोज यही सोचकर जागता है सुबह
आज शायद मिलेगा उसे पानी और धूप
जिससे उसके सूखे पत्ते हो सके फिर से हरा-भरा जो युवावस्था में ही हो गये है पीले।
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