मंगलवार, 2 जून 2015

मेरा अंत

बरखा बहार लाई सावन की आड़ में।
माँझी मुझे छोड़ गया बीच मंझधार में।

दिखे है न साहिल और डूब गई कश्ती।
जाऊँ कहाँ मैं अब खोजूँ कहाँ बस्ती?

रब जाने मंजिल अब मेरा कहाँ है?
हमराह मेरे अब बस वो खुदा है।

दूर हुआ था जब मैं अपने शहर से।
चेहरा पुताया था जब दुनिया के डर से।

जिंदगी के दोराहे पे खड़ा था बेचारा।
राह जो पकड़ा मैंने वो था अँधियारा।

अनजान राहें थी और चला बेसहारा।
जीवन के दौड़ में हूँ अब मैं तो हारा।

ठौर पराया था यह छूटना था एक दिन।
कच्चे थे धागे इन्हें टूटना था एक दिन।

कोई टिप्पणी नहीं: